हिंदी में उपचारात्मक शिक्षण : Remedical teaching In Hindi (Hindi Pedagogy Notes)

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हिंदी में उपचारात्मक शिक्षण व निदनात्मक शिक्षण

इस पोस्ट में हम हिंदी में उपचारात्मक शिक्षण (upcharatmak Shikshan)  आप के साथ शेयर कर रहे हैं।  इस पोस्ट में हमने उपचारात्मक शिक्षण  को बहुत ही विस्तार से समझाया है।  इस पोस्ट में हम जानेगे हिंदी में उपचारात्मक शिक्षण,निदानात्मक एवं उपचार शिक्षण का महत्व,उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य,उच्चारण में उपचारी शिक्षण की आवश्यकताएं,उच्चारण दोष के कारण,उच्चारण संबंधी दोषों का निराकरण के बारे में विस्तार पूर्वक सभी महत्वपूर्ण जानकारी है।हिंदी में उपचारात्मक शिक्षण से विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में जैसे किCTET,UPTET,REET,MPTET,HTET,2nd grade में इससे संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं। इन सभी परीक्षाओं की दृष्टि से यह बहुत ही महत्वपूर्ण विषय होता है। आशा है, यह पोस्ट आप सभी के लिए उपयोगी सिद्ध होगी ।आगामी प्रतियोगिताओं के लिए आप सभी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं !!! 

हिंदी में उपचारात्मक शिक्षण (Hindi me upcharatmak Shikshan)

  •  शैक्षणिक निदान द्वारा बालकों की कठिनाइयों का पता लगाकर उन कठिनाइयों को दूर करने के लिए शिक्षक, जो शिक्षण विधियां अपनाता है उसे उपचार शिक्षण कहते हैं।
  • उपचारात्मक शिक्षण के भी अनेक रूप हो सकते हैं- बालको की कठिनाइयों का सामूहिक रूपसे निवारण और उचित अभ्यास, वैयक्तिक भेदों के आधार पर व्यक्तिगत रूप से बालक की अशुद्धियों का निवारण, उपचार ग्रहों अथवा भाषा प्रयोगशालाओं में बालकों के उच्चारण एवं भाषा संबंधी प्रशिक्षण और अभ्यास।

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निदानात्मक एवं उपचार शिक्षण का महत्व (nibandh evam upchar Shikshan ka mahatva)

  • आधुनिक शिक्षण में “निदानात्मक एवं उपचार शिक्षण”  एक नवीन प्रयोग है और इससे उन बालकों को विशेष लाभ होता है।  जो किन्ही कारणों से सीखने की क्रिया में पिछड़ जाते हैं, और अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाते।
  • निदानात्मक शिक्षण द्वारा बालको की सीखने संबंधी कठिनाइयों का पता चल जाता है।
  • शिक्षण संबंधी कठिनाई एवं कारणों को दूर करने में समुचित शिक्षण प्रक्रिया अपनाई जाती है, जिससे बालक को अपनी शक्ति एवं योग्यता अनुसार शैक्षणिक प्रगति करने का अवसर मिलता है।
  • अपचारी शिक्षक द्वारा छात्रों की व्यक्तिगत कठिनाई दूर होती है और इस क्रिया से अन्य छात्रों के समय आदि की भी खेती नहीं होती।
  • शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में पिछड़े बालकों की हीन भावना दूर हो जाती है और वे समायोजन से बच जाते हैं साथ ही उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है और उनके व्यक्तित्व को समुचित विकास करने में सहायता मिलती है।

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उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य (upchar atmak Shikshan ke uddeshya)

upcharatmak shikshan ke uddeshya

उपचारात्मक शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं।

  1. विद्यार्थियों की भाषा सम्बन्धी अशुद्धियों को दूर करना तथा इनको दूर करके कक्षा के अन्य विद्यार्थियों के बहुमूल्य समय को नष्ठ होने से बचाना।
  2. विद्यार्थियों की ज्ञान – प्राप्ति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों एवं समस्याओं को दूर करना।
  3. विद्यार्थियों की संवेगात्मक समस्याओं का समाधान करके उनको असमायोजन से बचाना तथा उनको मानसिक रूप से स्वस्थ तथा शिक्षण ग्रहण करने के योग्य बनाना।
  4. विद्यार्थियों को सर्वांगीण विकास की ओर अग्रसर करना अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देना।
  5. विद्यार्थियों को भाषा – सम्बन्धी दोषों से परिचित कराना तथा उनके प्रति सावधान करना तथा दोषों को दूर करने के लिए प्रेरित करना।
  6. शिक्षक द्वारा अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाना तथा विद्यार्थियों को अपनी शक्ति व क्षमता के अनुसार शैक्षिक प्रगति के अवसर प्रदान करना।

उपचारात्मक शिक्षण – विधियाँ

विद्यार्थियों की भाषा – सम्बन्धी अशुद्धियों को दूर करने के लिए प्रायः निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है –

  1. व्यक्तिगत विधि,
  2. सामूहिक विधि
  1. व्यक्तिगत विधि
  • व्यक्तिगत विधि में विद्यार्थियों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ध्यान रखा जाना चाहिए। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि प्रत्येक बालक एक – दूसरे से भिन्न होता है। अत: व्यक्तिगत उपचार के लिए बालक के मानसिक एवं बौद्धिक स्तर को आधार बनाना चाहिए।
  • व्यक्तिगत उपचार की सफलता के लिए आवश्यक है कि उपचाराधीन विद्यार्थी की समस्याओं एवं कठिनाइयों का गम्भीरता से अध्ययन किया जाए। उसकी विभिन्न परिस्थितियों तथा विवशताओं को ध्यान में रखा जाए। अध्ययन व विश्लेषण में चूक से उलटा परिणाम भी निकल सकता है।
  • उपचार करते समय परिस्थितियों, मजबरियों एवं वातावरण का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
  • उपचार हेतु दण्ड आवश्यक नहीं है। प्रेम व सहानभति के साथ व्यक्तिगत उपचार करना चाहिए।
  • कक्षा में विद्यार्थी अलग – अलग ढंग से गलतियाँ करते हैं, अतः उपचार भी अलग – अलग ढंग से किया जाना चाहिए।
  1. सामूहिक विधि
  • सामूहिक उपचार विधि का अर्थ है – सभी विद्यार्थियों का एक स्थान पर उपचार करना। कुछ अशुद्धियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें अधिकांश विद्यार्थी करते हैं। अध्यापक विद्यार्थियों की कॉपियाँ देखकर या उनके वाचन का निरीक्षण करके ऐसी गलतियों को ढूंढ़ निकालता है। ये अशुद्धियाँ पिछली कक्षा में गलत शिक्षण के कारण, भ्रमपूर्ण धारणाओं के कारण या परिवेश के कारण पैदा हो सकती हैं।
  • इन गलतियों का सामूहिक उपचार करने से सभी छात्रों को लाभ पहुँच सकता है।
  • सामूहिक उपचार की एक और विधि भी है जिसमें समूची कक्षा की अशुद्धियों का एक साथ उपचार नहीं किया जाता अपितु अशुद्धियों के आधार पर कक्षा को तीन – चार वर्गों में बाँटा जाता है। फिर प्रत्येक वर्ग की अशुद्धियों का सामूहिक उपचार किया जाता है। प्रत्येक वर्ग को अतिरिक्त समय देकर उनके विभिन्न दोषों का उपचार करके उनको भाषा के शुद्ध प्रयोग का अभ्यास कराया जाता है।
  • श्रम साध्य होने पर भी यह विधि उपयोगी है। इस विधि में छात्र एक – दूसरे की सहायता भी कर सकते हैं।
  • उपचारात्मक शिक्षण का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों की अशुद्धियों का निवारण करना है।
  • उपचार करते समय अध्यापक को विद्यार्थियों के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए।
  • विद्यार्थियों को प्रेरित व प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। कठिनाइयाँ दूर होते ही विद्यार्थियों की प्रगति आरम्भ हो जाती है।

   उच्चारण में उपचारी शिक्षण की आवश्यकताएं (Ucharan Mein upchar Shikshan ki avashyakta)

upcharatmak aahar ki avashyakta

अशुद्ध उच्चारण में भाषा का स्वरूप बिगड़ता है।  विनर शुद्ध उच्चारण ज्ञान के भाषा के शुद्ध रूप का ज्ञान नहीं हो सकता है।  उच्चारण ध्वनियों के आधार पर किया जाता है। ध्वनियों के अशुद्ध उच्चारण सेना भाषा ठीक ढंग से समझी जा सकती है, ना ही उनका   सम्यक एक ज्ञान ही हो पाता है।

    • बाल्यावस्था में ही बच्चों का उच्चारण  शुद्ध अशुद्ध रूप धारण करने लगता है। इस कारण बालकों के उच्चारण पर विशेष बल देना चाहिए।  बचपन से ही अशुद्ध उच्चारण से बचाया जाना चाहिए।
    • अशुद्ध उच्चारण स्थान एवं लेखन कौशल को भी प्रभावित करता है, उन्हें दोषमुक्त बनाए रखने के लिए उपचार शिक्षण आवश्यक होता है।
    • अहिंदी भाषी क्षेत्रों के बालक को पर प्रांतीय भाषाओं का प्रभाव पड़ता है।  वहां में बालकों को हिंदी के उच्चारण में इन प्रांतीय भाषाओं के प्रभाव से बचाना चाहिए।
    • हिंदी भाषा में उच्चारण संबंधी अनेक दोष एवं कठिनाई है। सावधानीपूर्वक इसका  निराकरण करना चाहिए। इसके लिए छात्रों को उच्चारण दोष से मुक्त करना आवश्यक है।

भाषा  दोष

यदि बालक अपने स्वर यंत्र पर नियंत्रण नहीं रख पाता, तो उसमें भाषा दोष उत्पन्न हो जाता है।  भाषा दोष से ग्रसित बालक समाज में असहज महसूस करते हैं। उनमें हीनता की भावना का विकास हो जाता है और वह सामान्यतः अंतर्मुखी स्वभाव के हो जाते हैं।  भाषा दोष शैक्षिक विकास को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है।

मुख्यतः भाषा दोष निम्न प्रकार के होते हैं।

  • ध्वनि परिवर्तन
  • अस्पष्ट उच्चारण
  • हकलाना
  • तीव्र एवं अस्पष्ट वाणी
  • तुतलाना

उच्चारण दोष के कारण

उच्चारण दोष के प्रमुख कारण इस प्रकार है।

(1) शारीरिक कारण

 उच्चारण अंगों कंठ, तालु, होठ, दांत आदि में विकार के कारण उच्चारण संबंधी दोष आ जाते हैं। इसीलिए वे ध्वनियों का सही उच्चारण नहीं कर पाते हैं।

(2) वर्णों के उच्चारण का अज्ञान 

हिंदी भाषा की एक विशेषता यह भी है, कि उसका जैसा अक्षर विन्यास है, ठीक वैसे ही वह उच्चारित भी की जाती है।  इसके बावजूद अज्ञान व वर्ण बार शब्दों के सही रूप कुछ लोग उपचारित नहीं कर पाते हैं। जैसे- आमदनी को आम्दनी कहना, खींचने को खेचना कहना,प्रताप को परताप कहना,  वीरेंद्र को विरेंदर कहना आदि।

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(3) क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव

भाषा का रूप विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तित नजर आता है।  इसका मूल कारण क्षेत्रीय भाषाओं का खड़ी बोली पर प्रभाव है। भोजपुरी बोलने वाले लोग “ने” का प्रयोग कब करते हैं, तो पंजाबी क्षेत्र के लोग उसका अनावश्यक प्रयोग भी करते हैं। यथा, हमने जाना है। इसी तरह “ने”  के बदले कहीं “ण” का प्रयोग, कहीं “स” के बदले “ह” का प्रयोग, तो कहीं “ए” , “औ” और “न” के बदले “ए” ,”ओ”,”ण” का प्रयोग आदि के कारण उच्चारण संबंधी दोष उत्पन्न होते हैं।

(4)अन्य भाषाओं का प्रयोग

 हिंदी भाषा पर अन्य भाषाओं का प्रभाव भी दिखाई पड़ता।  जिससे उसके उच्चारण पर प्रभाव पड़ता है। उर्दू के कारण हिंदी का – क, ख, ग – .क ,ख़, .ग हो गया है। अंग्रेजी के कारण कॉलेज, प्लेटफॉर्म आदि अनेक शब्द जुड़ गए हैं। अंग्रेजी के कारण  ही “आ” का उच्चारण “ऑ” होने लगा है।

(5) अध्यापक की अयोग्यता 

उच्चारण सुधार में अध्यापक का महत्वपूर्ण योगदान है।अगर अध्यापक उच्चारण में सतर्कता नहीं रखते या शुद्ध उच्चारण करने में असमर्थ है, तो  छात्र उसका अनुकरण करके अशुद्ध उच्चारण करना प्रारंभ कर देते हैं।

(6) प्रयत्न- लाघव 

धन्यवाद शब्दों के उच्चारण में पूर्ण सावधानी ना रखने पर गुस्सा आना स्वाभाविक होता है। शब्दों एवं ध्वनियों का उच्चारण पूर्ण रूप से किया जाना चाहिए।  प्रयत्न- लाघव(short-cut) विधि को अपनाने से उच्चारण संबंधी दोष आ जाते हैं, यथा परमेश्वर को “प्रमेसर” ,“मास्टर साहब” को ” म्मासाब” आदि।

(7) दोषपूर्ण आदतें 

व्यक्तिगत दोष आदतें भी अशुद्ध उच्चारण का कारण बन जाती है। अनु स्वरों का अधिक उच्चारण इसका प्रचलित रूप है।  जैसे “कहा” को “कहाँ” कहना या अनुस्वरो का लोप जैसे “हैं” को “है” कहना आदि। रुक-रुक कर बोलना, शीघ्रता से बोलना, किसी की नकल करके भी उच्चारण दोष लाने के कारण हैं।

(8) शुद्ध भाषा के वातावरण का अभाव 

भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जा। अगर विद्यार्थी को भाषा के  शुद्ध रूप को प्रयोग करने का वातावरण नहीं मिला, तो अशुद्ध उच्चारण स्वाभाविक है। अशुद्ध उच्चारण वाले वातावरण के बीच पलने वाला बालक शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता है।

(9) अक्षरों एवं मात्राओं का अर्थ अस्पष्ट ज्ञान 

जिन छात्रों को अक्षर एवं मात्राओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं दिया जाता, उनमें उच्चारण दोष होता है। संयुक्ताक्षरो के संदर्भ में यह भूल अधिक होती है। जैसे- स्वर्ग को सरग कहना,कर्म को करम कहना, धर्म को धरम कहना आदि ।

उच्चारण संबंधी दोषों का निराकरण

उच्चारण संबंधी दोषों का निराकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है।

(1) उच्चारण अंगों की चिकित्सा

 अगर उच्चारण करने वाले अंग में कोई  दोष हो तो चिकित्सक से चिकित्सा करवानी चाहिए। उच्चारण करने में श्वास नलिका, कंठ, जीभ , नाक, तालु,  मूर्धा, दांत आदि की सहायता ली जाती है। इन अंगों में दोष आ जाने पर उच्चारण प्रभावित होने की संभावना रहती है। इसलिए इन अंगों में दोष आने पर तत्काल चिकित्सा करवानी चाहिए।

(2)  पुस्तकों के शुद्ध पाठ पर  बल 

बालक में अनुकरण की अपूर्व क्षमता होती है। अनुकरण के माध्यम से कठिन से कठिन तथ्य समझ लेता है।  अगर उसे शुद्ध उच्चारण करने वाले लोगों, विद्वानों आदि के साथ रखा जाए, तो उसमें उच्चारण दोष का भय नहीं रहेगा।  उसका उच्चारण रेडियो, ग्रामोफोन, टेप रिकॉर्डर आदि के माध्यम से इसी पद्धति पर सुधारा जा सकता है।

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(3) शुद्ध वाचन

 उच्चारण संबंधी दोषों के निराकरण के लिए पुस्तकों का शुद्ध वाचन आवश्यक है। पहले अध्यापक आदर्श वाचन प्रस्तुत करें, इसके उपरांत वह छात्रों से शुद्ध वाचन कराएं।  वाचन में सावधानी रखें तथा अशुद्धियों का निवारण कराएं।

(4) उच्चारण प्रतियोगिताएं  

कक्षा शिक्षण में मुख्यतः भाषा के कालांश में उच्चारण की प्रतियोगिताएं करानी चाहिए।  कठिन शब्द श्यामपट्ट पर लिखकर उनका उच्चारण कर आना चाहिए। शुद्ध शब्द उच्चारण करने वाले छात्रों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए।

(5) भाषण एवं संवाद प्रतियोगिता 

भाषण एवं संवाद प्रतियोगिताओं से उच्चारण शुद्ध होते हैं।  निर्णायक मंडल को पुरस्कार देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि शुद्ध उच्चारण करने वाले छात्रों को ही पुरस्कार या प्रोत्साहन मिले।

(6) हिंदी की कतिपय विशेष ध्वनियों का अभ्यास  

 हिंदी भाषा में स,श एवं ष, न एवं ण, व तथा ब, ड तथा ड़, क्ष तथा छ आदि का उच्चारण दोष बालको में पाया जाता है। जैसे-  विकास का उच्चारण “विकाश”  महान का उच्चारण “महाण” ,वन का उच्चारण “बन”आदि। अध्यापक को इस संदर्भ में विशेष जागरूक रहना चाहिए और इस संदर्भ में भूल होते ही निराकरण कर देना चाहिए।

(6)  बल, विराम  तथा सस्वर  पाठ का अभ्यास 

अक्षरों या शब्दों का उच्चारण ही पर्याप्त नहीं है, वरन पूरे वाक्य को उचित बल, विराम  तथा सस्वर वाचन के आधार पर पढ़ने का अभ्यास डालना भी आवश्यक है। शब्दों पर उचित बल देकर पढ़ने से अर्थ भेद एवं भाग वेद का ज्ञान होता है।  विराम के माध्यम से लय , प्रवाह एवं गति का पता लगता है। इसीलिए इन पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। इससे उच्चारण संबंधी दोषों का निवारण भी होता है।

(7) विश्लेषण विधि का प्रयोग 

कठिन एवं बड़े-बड़े शब्दों के बाद ध्वनियों के उच्चारण में विश्लेषण विधि का प्रयोग किया जाए। इससे अशुद्ध उच्चारण की संभावना कम हो जाती है। पूरे शब्दों को अक्षरों में विभक्त करने से संयुक्ताक्षर हुआ, कठिन शब्दों को सहज बनाया जा सकता है।

(8)अनुकरण विधि का प्रयोग  

 उच्चारण का सुधार अनुकरण विधि से किया जा सकता है। अध्यापक कठिन शब्दों का उच्चारण पहले स्वयं करें तथा पुनः कक्षा के बालकों को उसका अनुकरण करने को कहें। अनुकरण चीन छात्रों को हावभाव, जीव्हा संचालन ,मुखावयव तथा स्वरों के उतार-चढ़ाव का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए, ताकि उच्चारण में प्रत्याशित सुधार लाया जा सके।

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(9)  सभी विषयों के शिक्षण में उच्चारण पर ध्यान

उच्चारण पर ध्यान देना केवल भाषा शिक्षक का ही कार्य नहीं है। सभी विषयों के शिक्षण में उच्चारण पर अगर ध्यान दिया जाए, तो इसमें सुधार शीघ्रता से होगा।  प्रायः यह कार्य भाषा के अध्यापक का ही माना जाता है, जो एक भूल है। सभी विषयों के अध्यापकों को इस पहलू पर बल देना चाहिए।

(10) वैयक्तिक एवं सामूहिक विधि का प्रयोग

 उच्चारण सुधार के लिए दोनों ही विधियां प्रयुक्त की जाए। बालक के उच्चारण विशेष संबंधी दोषों के परिष्कार के लिए वैयक्तिक बिधि उपयोगी है। जब कक्षा के अधिकतर छात्र कठिन शब्दों का उच्चारण नहीं कर, तो ऐसी स्थिति में सामूहिक विधि द्वारा निराकरण किया जाना चाहिए।

(11) स्वराघात  पर बल 

कब किस शब्द पर बल देना है।  इसका उच्चारण में बड़ा महत्व है। यह भाव भेद एवं अर्थ भेद की जानकारी कर आता है। इसीलिए उच्चारण में स्वराघात पर विशेष ध्यान देना चाहिए। स्वराघात का अभ्यास वाचन के समय, संवाद , नाटक, सस्वर वाचन वैभव अनुकूल वाचन के रूप में कराया जा सकता है। स्वर के उतार-चढ़ाव पर ध्यान देने में स्वराघात का अभ्यास हो जाता है।

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उच्चारण संबंधी दोषों के निराकरण में सहायक ध्वनि यंत्र एवं दृश्य श्रव्य उपकरण निम्न है।
  • सिर एवं ग्रीवा का मॉडल , जिसमें उच्चारण स्थल दर्शाए गए हो।
  • दर्पण (जिस में उच्चारण करते समय बालक अपने उच्चारण स्थल देख सके)। ग्रामोफोन (शुद्ध उच्चारण के लिए)। लिंगवाफोन (शुद्ध उच्चारण की शिक्षा के लिए)। टेप रिकॉर्डर (कठिन उच्चारण के आदर्श उच्चारण के अभ्यास के लिए)।
  • काइमोग्राफ अल्पप्राण- महाप्राण, घोष – अघोष, स्पर्श- संघर्षी वरुण गांधी की शिक्षा के लिए यह उपकरण बड़े ही उपयोगी है ।

इस पोस्ट में हमने हिंदी में उपचारात्मक शिक्षण(upcharatmak Shikshan)  आप सभी के साथ शेयर किए हैं आशा है यह पोस्ट आपके लिए उपयोगी साबित होगी!!!

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