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Social Science Teaching Methods In Hindi For REET, CGTET, CTET

Social Science Teaching Methods In Hindi

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Social Science Teaching Methods In Hindi

इस पोस्ट में हम सामाजिक अध्ययन की शिक्षण विधियां (Social Science Teaching Methods In Hindi) आप सभी के साथ शेयर कर रहे हैं। सामाजिक अध्ययन की शिक्षण विधियां जैसे निरीक्षण विधि,वाद विवाद विधि, प्रश्नोत्तर विधि, इकाई विधि, संकेंद्रीय विधि, स्त्रोत संदर्भ विधि, कार्य गोष्ठी विधि, प्रादेशिक विधि, सामूहिक विवेचना विधि एवं प्रयोगात्मक विधि का विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे। जो कि आगामी सभी शिक्षक भर्ती परीक्षाओं की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है आशा है यह जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी। 

social science teaching methods

(1) निरीक्षण विधि

 गुण-

1.  छात्र में सीखने की जिज्ञासा एवं उत्सुकता बनी रहती है। 

2.  प्रत्यक्ष अनुभव तथा व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त होता है। 

3.  छात्रों में कल्पना शक्ति एवं तुलना शक्ति का विकास होता है। 

4. ‘निरीक्षण’  बालक के ‘ज्ञानकोष’  में वृद्धि करता है। 

प्राप्त ज्ञान स्पष्ट व स्थाई होता है। 

दोष-

1.  शिक्षक के लिए पूर्व तैयारी करना आवश्यक  होता है। 

2.  छात्रों को अनुशासित करना कठिन हो जाता है। 

3.  इस विधि में समय एवं धन अधिक खर्च होता है।

(2)  वाद-विवाद विधि

1. अनौपचारिक वाद विवाद-  इसके लिए किन्ही निर्धारित नियमों या किसी पूर्व निर्धारित पद्धति की आवश्यकता नहीं है। 

2.  औपचारिक वाद विवाद –  इसमें प्रत्येक कार्य विधिवत ढंग से किया जाता है। इसका संचालन पूर्व निर्धारित नियमों के आधार पर किया जाता है। 

 वाद-विवाद विधि के पद- 

1. प्रकरण या समस्या का निर्धारण करना। 

2. समूह का निर्माण करना। 

3. वाद-विवाद संचालन करना। 

4. वाद विवाद की समीक्षा करना। 

5. शिक्षक का दायित्व\ परीक्षण करना। 

6. मूल्यांकन करना। 

 संक्षिप्त में वाद-विवाद विधि के तीन पद ही माने जाते हैं। 

1.  योजना बनाना।

2.  क्रियान्वयन करना।

3.  मूल्यांकन

 गुण

1.  छात्रों में सामूहिक रूप से कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास होता है।

2.  छात्रों में स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता की भावना का विकास होता है 

3. छात्रों में तर्क, चिंतन, तुलना, विश्लेषण, संश्लेषण आदि गुणों का विकास होता है।

4.  यह बालक ओं में अनुसंधान ( खोज) की प्रवृत्ति को जन्म देती है।

5.  इस विधि में सभी छात्र भाग लेते हैं, जिससे छात्रों में सहिष्णुता की भावना का विकास होता है।

 दोष

1.  इसमें समय अधिक लगता है।

2.  अनुशासनहीनता का भय बना रहता है।

3.  छात्र विषय से भटक कर व्यर्थ की बातें एवं तर्क कर सकते हैं।

4.   यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए उपयोगी नहीं है।

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(3)  इकाई विधि

 इकाई विधि के पद

1.  अनुसंधान या जांच

2.  प्रस्तुतीकरण

3.  क्रियान्वित\ आत्मीकरण

4. सुव्यव्स्ठीकरण

5.  अभिव्यक्ति करण

 गुण-

1. इस विधि मे छात्र  योजना विधि या समस्या समाधान विधि दोनों की तरह क्रियाशील रहते हैं। 

2.  इस विधि के द्वारा प्रत्येक अध्याय को छोटी छोटी इकाइयों में बांटकर शिक्षण कराया जाता है।  जिससे कि बच्चे जल्दी ग्रहण कर लेते हैं। 

दोष-

1.  इकाई योजना बनाने में दक्ष ( कुशल) अध्यापक की आवश्यकता पड़ती है।

2.  सभी प्रकार की विषय वस्तुओं को इकाइयों में नहीं बांटा जा सकता है।

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(4)  स्त्रोत संदर्भ विधि

 विभिन्न प्रकार के प्रमुख स्त्रोत (मूल स्त्रोत) 

(1)  मौखिक स्त्रोत –  गीत, लोकोक्तियां, परंपराएं, रीति रिवाज एवं दंत कथाएं

(2)  सामग्री संबंधित स्त्रोत –  प्रतिमा, यंत्र, शास्त्र, खंड, सिक्के

(3)  लिखित अथवा मुद्रित स्त्रोत –  हस्त लेख, शिलालेख, पांडुलिपि, रिपोर्ट, बही खाते, डायरी इत्यादि

 गुण-

1.  इससे बालक की मानसिक शक्तियों का विकास होता है।

2.  विद्यार्थी को गहन अध्ययन के लिए प्रेरित किया जाता है।

3.  स्वाध्याय अध्ययन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है।

4. इससे अतीत का वातावरण स्थापित किया जा सकता है और भूतकाल को वास्तविक बनाया जा सकता है।

5.  उच्च स्तर के अध्ययन तथा शोध कार्य में यह विधि छात्रों में रुचि पैदा करती है।

 दोष-

1.  यह अत्याधिक खर्चीली विधि है।

2.  इसमें समय अधिक लगता है, पाठ्यक्रम समय पर पूरा नहीं हो पाता है।

3. विशेषज्ञ शिक्षकों की आवश्यकता होती है।

4.  विद्यालय में पुस्तकालय का होना आवश्यक है।

5.  छोटी कक्षाओं एवं छोटे बच्चों के लिए यह विधि उपयुक्त नहीं है।

(5)  संकेद्रीय विधि

 सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत भूगोल शिक्षण के लिए यह सर्वाधिक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विधि मानी जाती है। इस विधि में छात्रों को पहले अपने गृह प्रदेश का ज्ञान दिया जाता है। यह विधि सरल से कठिन की और सीखने के सिद्धांत पर आधारित है।


(6)  क्रियात्मक विधि

(7)  कार्य गोष्ठी विधि

1.  प्रातः कालीन सत्र –  इसमें सभी  सैद्धांतिक पक्षों पर विचार विमर्श किया जाता है। विभिन्न विद्वानों के भाषण होते हैं, वह कार्य संपादन हेतु निर्णय लिए जाते हैं। 

2.  सायं कालीन सत्र –  इसमें छोटे-छोटे  दलों का निर्माण किया जाता है तथा  मुक्ता से विषय की गहराई से उतरते हुए अपना कार्य करते हैं। इन दलों के निर्माण में अभिरुचि का विशेष ध्यान रखा जाता है।

 कार्य गोष्ठी के पद

1.  समस्याओं का चयन करना

2.  समस्याओं का वर्गीकरण करना 

3. सामूहिक परिचर्चा

4.  वर्ग बार कार्य करना

5.  कार्य को अंतिम रूप देना

6.  कार्य का मूल्यांकन करना 

 गुण-

1. यह विधि सामाजिक अभिव्यक्ति विधि का एक सुव्यवस्थित एवं व्यवहारिक रूप है।

2. विद्यार्थियों में स्वाध्याय और गहन अध्ययन की प्रवृत्ति विकसित होती है। 

3. सामाजिक एवं जीवन से संबंधित कौशल की प्राप्ति होती है।

4.  विषय में सूझ- बूझ  का विकास होता है।

5. उच्च स्तर के शिक्षण के लिए बहुत लाभदायक है।

  दोष-

1. यह खर्चीली विधि है। 

2.  कार्य की गति धीमी होने से समय अधिक लगता है। 

3.  इस विधि द्वारा विद्यालयी व्यवस्था में कठिनाई आती है।

(8) प्रयोगात्मक विधि

  गुण- 

1.  बालकों में  अनुसंधान की प्रवृत्ति का विकास होता है। 

2.  बालक सक्रिय रहते हैं। 

3.  बालक स्वयं करके सीखते हैं, जिससे  प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है। 

दोष-

1.   इस विधि में समय अधिक लगता है।

2.  यह विधि अधिक खर्चीली विधि मानी जाती है।

3.  पूर्ण विषय वस्तु को इस विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता।


(9) सामूहिक विवेचना विधि

 गुण- 

1.  इससे छात्रों में सामूहिक भावना का विकास होता है।

2.  बालकको में खोजने की प्रवृत्ति का विकास होता है।

3.  छात्र व शिक्षक सहयोग से कार्य करते हैं, जिससे उनमें मधुर संबंध स्थापित होते हैं।

4.  इस विधि में गृह कार्य नहीं दिया जाता है।

दोष-

1.  इस विधि में समय एवं श्रम अधिक लगता है।

2.  विद्यालय का कक्षा के अन्य कार्य प्रभावित होते हैं।

3.  संपूर्ण पाठ्यक्रम पूर्ण नहीं हो पाता है।

(10)  प्रादेशिक विधि

 गुण- 

1. इसमें समय व शक्ति की बचत होती है।

2.  अध्ययन में सुविधा होती है।

3.  स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों एवं मानव के लिए सह संबंधों की जानकारी प्राप्त होती है।

 दोष-

1.  इस विधि का प्रयोग सभी स्तरों पर नहीं किया जा सकता है।

2.  प्राकृतिक प्रदेश की निश्चित सीमा नहीं  होने के कारण अध्ययन अपूर्ण रहता है।

(11)  प्रश्नोत्तर विधि

  गुण- 

1.  इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है।

2.  इससे पाठ्यक्रम समय पर पूरा हो जाता है।

3.  छात्र सक्रिय रहते हैं।

4.  छात्रों में सोचने समझने एवं तर्क करने की शक्ति का विकास होता है।

5.  छात्रों के पूर्व ज्ञान के आधार पर प्रश्न पूछे जाने के कारण पहले  बढ़ाए गए पाठ भी याद हो जाते हैं।

 दोष-

1.  छोटे बच्चों के लिए अर्थात प्राथमिक स्तर  यह विधि उपयुक्त नहीं है।

2.  छात्र कभी-कभी विषय से भटक कर व्यर्थ के प्रश्न भी पूछने लग जाते हैं।



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