इस पोस्ट में हम सामाजिक अध्ययन की शिक्षण विधियां (Social Science Teaching Methods In Hindi) आप सभी के साथ शेयर कर रहे हैं। सामाजिक अध्ययन की शिक्षण विधियां जैसे निरीक्षण विधि,वाद विवाद विधि, प्रश्नोत्तर विधि, इकाई विधि, संकेंद्रीय विधि, स्त्रोत संदर्भ विधि, कार्य गोष्ठी विधि, प्रादेशिक विधि, सामूहिक विवेचना विधि एवं प्रयोगात्मक विधि का विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे। जो कि आगामी सभी शिक्षक भर्ती परीक्षाओं की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है आशा है यह जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी।
social science teaching methods
(1) निरीक्षण विधि
निरीक्षण से तात्पर्य है- किसी वस्तु, घटना या स्थिति का सावधानीपूर्वक अवलोकन करना। अतः इस विधि में बालक किसी वस्तु, स्थानीय स्थिति को देखकर ही उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करता है।
यह विधि ‘देखकर सीखना’ सिद्धांत पर आधारित है।
छोटी कक्षाओं में स्थानीय भूगोल पढ़ाने में इस विधि का प्रयोग किया जा सकता है।
विभिन्न प्रकार की फसलें, विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतिया, विभिन्न प्रकार की संस्कृतिया आदि प्रकरण पढ़ाने में इस विधि का उपयोग किया जा सकता है।
गुण-
1. छात्र में सीखने की जिज्ञासा एवं उत्सुकता बनी रहती है।
2. प्रत्यक्ष अनुभव तथा व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त होता है।
3. छात्रों में कल्पना शक्ति एवं तुलना शक्ति का विकास होता है।
4. ‘निरीक्षण’ बालक के ‘ज्ञानकोष’ में वृद्धि करता है।
5 प्राप्त ज्ञान स्पष्ट व स्थाई होता है।
दोष-
1. शिक्षक के लिए पूर्व तैयारी करना आवश्यक होता है।
2. छात्रों को अनुशासित करना कठिन हो जाता है।
3. इस विधि में समय एवं धन अधिक खर्च होता है।
(2) वाद-विवाद विधि
यह एक मनोवैज्ञानिक विधि है, जो क्रियाशीलता के सिद्धांत पर आधारित है।
यदि मे शिक्षक तथा छात्र मिलकर किसी समस्या या प्रकरण पर अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं तथा आपसी सहमति द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास करते हैं।
इस विधि के दो रूप होते हैं।
1. अनौपचारिक वाद विवाद- इसके लिए किन्ही निर्धारित नियमों या किसी पूर्व निर्धारित पद्धति की आवश्यकता नहीं है।
2. औपचारिक वाद विवाद – इसमें प्रत्येक कार्य विधिवत ढंग से किया जाता है। इसका संचालन पूर्व निर्धारित नियमों के आधार पर किया जाता है।
वाद-विवाद विधि के पद-
1. प्रकरण या समस्या का निर्धारण करना।
2. समूह का निर्माण करना।
3. वाद-विवाद संचालन करना।
4. वाद विवाद की समीक्षा करना।
5. शिक्षक का दायित्व\ परीक्षण करना।
6. मूल्यांकन करना।
संक्षिप्त में वाद-विवाद विधि के तीन पद ही माने जाते हैं।
1. योजना बनाना।
2. क्रियान्वयन करना।
3. मूल्यांकन
गुण
1. छात्रों में सामूहिक रूप से कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास होता है।
2. छात्रों में स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता की भावना का विकास होता है
3. छात्रों में तर्क, चिंतन, तुलना, विश्लेषण, संश्लेषण आदि गुणों का विकास होता है।
4. यह बालक ओं में अनुसंधान ( खोज) की प्रवृत्ति को जन्म देती है।
5. इस विधि में सभी छात्र भाग लेते हैं, जिससे छात्रों में सहिष्णुता की भावना का विकास होता है।
दोष
1. इसमें समय अधिक लगता है।
2. अनुशासनहीनता का भय बना रहता है।
3. छात्र विषय से भटक कर व्यर्थ की बातें एवं तर्क कर सकते हैं।
भूतकाल इन घटनाओं द्वारा छोटे एवं शेष चिन्ह (अवशेष) स्त्रोत कहलाते हैं।
संदर्भ से तात्पर्य प्रमाणिक ग्रंथों की विषय वस्तु से होता है जिन का निरूपण प्राथमिक एवं सहायक स्त्रोतों के गहन अध्ययन एवं अनुसंधान के बाद किया जाता है।
विषय के प्रकांड विद्वानों द्वारा लिखित एवं पीएचडी आदि के स्वीकृत ग्रंथ विषय संदर्भ की श्रेणी में आते हैं।
यह विधि निरीक्षण विधि के समान ही है। इस विधि में शिक्षक विभिन्न स्त्रोतों का प्रदर्शन कर शिक्षण कार्य को आगे बढ़ाता है।
(2) सामग्री संबंधित स्त्रोत – प्रतिमा, यंत्र, शास्त्र, खंड, सिक्के
(3) लिखित अथवा मुद्रित स्त्रोत – हस्त लेख, शिलालेख, पांडुलिपि, रिपोर्ट, बही खाते, डायरी इत्यादि
गुण-
1. इससे बालक की मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
2. विद्यार्थी को गहन अध्ययन के लिए प्रेरित किया जाता है।
3. स्वाध्याय अध्ययन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है।
4. इससे अतीत का वातावरण स्थापित किया जा सकता है और भूतकाल को वास्तविक बनाया जा सकता है।
5. उच्च स्तर के अध्ययन तथा शोध कार्य में यह विधि छात्रों में रुचि पैदा करती है।
दोष-
1. यह अत्याधिक खर्चीली विधि है।
2. इसमें समय अधिक लगता है, पाठ्यक्रम समय पर पूरा नहीं हो पाता है।
3. विशेषज्ञ शिक्षकों की आवश्यकता होती है।
4. विद्यालय में पुस्तकालय का होना आवश्यक है।
5. छोटी कक्षाओं एवं छोटे बच्चों के लिए यह विधि उपयुक्त नहीं है।
(5) संकेद्रीय विधि
सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत भूगोल शिक्षण के लिए यह सर्वाधिक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विधि मानी जाती है। इस विधि में छात्रों को पहले अपने गृह प्रदेश का ज्ञान दिया जाता है। यह विधि सरल से कठिन की और सीखने के सिद्धांत पर आधारित है।
(6) क्रियात्मक विधि
इस विधि में छात्र अपने आप कार्य करता है, और ज्ञान प्राप्त करता है। शिक्षक की यह जिम्मेदारी होती है कि वह आवश्यक अनुकूल वातावरण तैयार करें एवं छात्रों का उचित मार्गदर्शन करें।
यह विधि प्राथमिक से माध्यमिक स्तर तक के लिए उपयुक्त विधि मानी जाती है।
यह विधि “करके सीखने” के सिद्धांत पर कार्य करती है।
बालक स्वयं करके सीखता है, जिस से प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है।
(7) कार्य गोष्ठी विधि
सामूहिक विचार-विमर्श हेतु कार्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। लगभग 30-40 व्यक्ति एक निश्चित स्थान पर एकत्रित होते हैं, तथा 4-5 दिन जमकर किसी विषय या समस्या पर विचार-विमर्श करते हैं।
जो कोई व्यक्ति कार्य गोष्ठी में भाग लेता है, उसे कुछ ना कुछ करना नितांत जरूरी होता है। अतः सभी छात्र क्रियाशील रहते हैं।
कार्य गोष्ठी में शिक्षण सत्र को दो पारियों में विभाजित किया जाता है।
1. प्रातः कालीन सत्र – इसमें सभी सैद्धांतिक पक्षों पर विचार विमर्श किया जाता है। विभिन्न विद्वानों के भाषण होते हैं, वह कार्य संपादन हेतु निर्णय लिए जाते हैं।
2. सायं कालीन सत्र – इसमें छोटे-छोटे दलों का निर्माण किया जाता है तथा मुक्ता से विषय की गहराई से उतरते हुए अपना कार्य करते हैं। इन दलों के निर्माण में अभिरुचि का विशेष ध्यान रखा जाता है।
कार्य गोष्ठी के पद
1. समस्याओं का चयन करना
2. समस्याओं का वर्गीकरण करना
3. सामूहिक परिचर्चा
4. वर्ग बार कार्य करना
5. कार्य को अंतिम रूप देना
6. कार्य का मूल्यांकन करना
गुण-
1. यह विधि सामाजिक अभिव्यक्ति विधि का एक सुव्यवस्थित एवं व्यवहारिक रूप है।
2. विद्यार्थियों में स्वाध्याय और गहन अध्ययन की प्रवृत्ति विकसित होती है।
3. सामाजिक एवं जीवन से संबंधित कौशल की प्राप्ति होती है।
4. विषय में सूझ- बूझ का विकास होता है।
5. उच्च स्तर के शिक्षण के लिए बहुत लाभदायक है।
दोष-
1. यह खर्चीली विधि है।
2. कार्य की गति धीमी होने से समय अधिक लगता है।
3. इस विधि द्वारा विद्यालयी व्यवस्था में कठिनाई आती है।
(8) प्रयोगात्मक विधि
इसे वैज्ञानिक विधि भी कहते हैं।
इसमें शिक्षक छात्रों को दिशा-निर्देश प्रदान करता है। वह छात्रों का मार्गदर्शक माना जाता है।
शिक्षक केवल योजना बनाता है एवं अन्य सहायक सामग्रियों के बारे में छात्रों को निर्देशित करता है।
‘भूगोल’ अध्ययन के लिए यह उपयुक्त विधि मानी जाती है।
माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर के लिए यह उपयोगी विधि है।
गुण-
1. बालकों में अनुसंधान की प्रवृत्ति का विकास होता है।
2. बालक सक्रिय रहते हैं।
3. बालक स्वयं करके सीखते हैं, जिससे प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है।
दोष-
1. इस विधि में समय अधिक लगता है।
2. यह विधि अधिक खर्चीली विधि मानी जाती है।
3. पूर्ण विषय वस्तु को इस विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता।
(9) सामूहिक विवेचना विधि
इस विधि को समाजिककृत अभिव्यक्ति तथा परिवीक्षित अध्ययन विधि भी कहते हैं।
शिक्षक की परिवीक्षण में बालक को के द्वारा किया जाने वाला अध्ययन समाजिकृत परिवीक्षित अध्ययन कहलाता है।
इस विधि के अंतर्गत कक्षा में छात्रों के कई समूह बना दिए जाते हैं। तथा छात्र सामूहिक रूप से विषय वस्तु का निर्धारण करते हैं।
विद्यार्थी अपनी इच्छा अनुसार कार्य करके सामूहिक रूप से किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास करते हैं।
गुण-
1. इससे छात्रों में सामूहिक भावना का विकास होता है।
2. बालकको में खोजने की प्रवृत्ति का विकास होता है।
3. छात्र व शिक्षक सहयोग से कार्य करते हैं, जिससे उनमें मधुर संबंध स्थापित होते हैं।
4. इस विधि में गृह कार्य नहीं दिया जाता है।
दोष-
1. इस विधि में समय एवं श्रम अधिक लगता है।
2. विद्यालय का कक्षा के अन्य कार्य प्रभावित होते हैं।
3. संपूर्ण पाठ्यक्रम पूर्ण नहीं हो पाता है।
(10) प्रादेशिक विधि
इस विधि के प्रवर्तक हरबर्टसन है।
‘प्रादेशिक’ शब्द का अर्थ है,’प्रदेश से संबंधित’ अर्थात जब स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार शिक्षण कार्य किया जाता है। वह प्रादेशिक विधि कहलाती है।
‘भूगोल’ के अध्ययन के लिए यह अच्छी विधि मानी जाती है।
गुण-
1. इसमें समय व शक्ति की बचत होती है।
2. अध्ययन में सुविधा होती है।
3. स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों एवं मानव के लिए सह संबंधों की जानकारी प्राप्त होती है।
दोष-
1. इस विधि का प्रयोग सभी स्तरों पर नहीं किया जा सकता है।
2. प्राकृतिक प्रदेश की निश्चित सीमा नहीं होने के कारण अध्ययन अपूर्ण रहता है।
(11) प्रश्नोत्तर विधि
यूनानी दार्शनिक ‘सुकरात’ को इस विधि का जनक माना जाता है। अतः इसे “सोकरेटिक मेथड” भी कहते हैं।
इस विधि में शिक्षक छात्रों से प्रश्न पूछता है। और पाठ का विकास आगे से आगे होता रहता है।
पूछे जाने वाले प्रश्न या तो पूर्व ज्ञान से संबंधित होते हैं अथवा विषय वस्तु से संबंधित होते हैं।
गुण-
1. इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है।
2. इससे पाठ्यक्रम समय पर पूरा हो जाता है।
3. छात्र सक्रिय रहते हैं।
4. छात्रों में सोचने समझने एवं तर्क करने की शक्ति का विकास होता है।
5. छात्रों के पूर्व ज्ञान के आधार पर प्रश्न पूछे जाने के कारण पहले बढ़ाए गए पाठ भी याद हो जाते हैं।
दोष-
1. छोटे बच्चों के लिए अर्थात प्राथमिक स्तर यह विधि उपयुक्त नहीं है।
2. छात्र कभी-कभी विषय से भटक कर व्यर्थ के प्रश्न भी पूछने लग जाते हैं।
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