Thorndike ka Sidhant || थार्नडाइक का संबंधवाद का सिद्धांत

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Thorndike Learning Theory In Hindi

इस पोस्ट में हम थार्नडाइक का सिद्धांत (Thorndike ka Sidhant) आप सभी के साथ शेयर कर रहे हैं। इसे उद्दीपक अनुक्रिया का सिद्धांत भी कहते हैं। इस सिद्धांत के प्रतिपादन अमेरिकी वैज्ञानिक “एडवर्ड एल थार्नडाइक”

है। थार्नडाइक में अपने प्रयोग के आधार पर तीन मुख्य नियम एवं पांच गौण नियमों का प्रतिपादन किया हैं।इसकी व्याख्या विस्तारपूर्वक नीचे दी गई है।

थार्नडाइक का संबंधवाद का सिद्धांत

    • प्रतिपादन – अमेरिकी वैज्ञानिक “एडवर्ड एल थार्नडाइक
    •  इसे  उद्दीपक अनुक्रिया का सिद्धांत भी कहते हैं। 
    • जब कोई उद्दीपक प्राणी से समक्ष उपस्थित  होता है। तब वह उसके प्रति प्रतिक्रिया करता है।  प्रतिक्रिया के सही अथवा संतोषजनक होने पर उसका संबंध उस विशेष उद्दीपक से हो जाता है।  जिसके कारण प्रतिक्रिया की गई है। 
    •  अधिगम की प्रक्रिया के दौरान उद्दीपक तथा अनुप्रिया के बीच एक प्रकार की बंधन अथवा संबंध बन जाते हैं।  जिसे उद्दीपन अनुक्रिया अनुबंध या S – R बांड कहते हैं। 
    •  अधिगमकर्ता के परिणामों से संतुष्ट होने पर यह बंधन मजबूत होते हैं।  और परिणामों की संतोषप्रद ना होने पर बंधन कमजोर होते हैं। 
    •  जब किसी विशेष उद्दीपक तथा विशेष अनुप्रिया के बीच बंधन बन जाता है।  उस विशेष उद्दीपक के प्रस्तुत होने पर जी उससे संबंधित विशेष अनुप्रिया को शीघ्रता से करता है। 
    •  इस सिद्धांत के अनुसार जीप की सीखने की प्रक्रिया प्रयास एवं त्रुटि पर आधारित होती है। 
    •  थार्नडाइक ने अपने अधिगम संबंधी प्रयोग बिल्ली, चूहे तथा मुर्गियों पर किए थे। 




 थार्नडाइक के संबंधबाद अधिगम सिद्धांत की प्रमुख  सैद्धांतिक बिंदु इस प्रकार हैं। 

1. अधिगम में प्रयास एवं त्रुटि समाहित होती है। 

2. अधिगम संबंधी या बंधनों के बनने का परिणाम है। 

3. अधिगम संज्ञान  पर आधारित ना हो पर प्रत्यक्ष होता है। 

4. अधिगम सूज युक्त ना होकर उत्तरोत्तर होती है। 

 थार्नडाइक में अपने प्रयोग के आधार पर तीन मुख्य नियम एवं पांच गौण नियमों का प्रतिपादन किया जो इस प्रकार हैं। 

मुख्य तीन नियम  इस प्रकार है।

(1)  अभ्यास का नियम

(2)  प्रभाव का नियम

(3)  तत्परता का नियम

1. अभ्यास का नियम 

 यह नियम  इस तथ्य पर आधारित है।  कि अभ्यास से व्यक्ति में पूर्णता आती है।  अभ्यास का नियम यह बतलाता है कि अभ्यास करने से उद्दीपक तथा अनुक्रिया का संबंध मजबूत होता है।  और अभ्यास रोक देने से संबंध कमजोर पड़ जाता है। तथा पाठ्यवस्तु विस्मृति हो जाती है। 

 अभ्यास के नियम को दो भागों में बांटा गया है। 
  •  उपयोग का नियम
  •  अनुपयोग का नियम 

मनुष्य जिस कार्य को बार-बार दोहराता है। उसे शीघ्र ही सीख जाता है। जब हम किसी पार्ट या विषय को दोहराना बंद कर देते हैं, तो उसे धीरे-धीरे भूलना प्रारंभ कर देते हैं। 

 थार्नडाइक ने अपने प्रयोगों के आधार पर बताया कि “सीखने की प्रक्रिया क्रमिक प्रक्रिया है।”

थार्नडाइक ने बताया कि सीखने के लिए दो बातें अनिवार्य है। 

1 बिल्ली भूखी होनी चाहिए।  अर्थात सीखने के लिए अभिप्रेरणा आवश्यक है। 

2  भूख की संतुष्टि के लिए भोजन का होना जरूरी है।  अर्थात पुनर्बलन होना जरूरी है। 

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अभ्यास के नियम का  शैक्षणिक महत्व
  • इस नियम के अनुसार बालकों को सिखाई जाने वाली क्रिया का उन्हें पर्याप्त अभ्यास कराया जाए। 
  •  कक्षा कक्ष में पढ़ाई गई विषय वस्तु का मौलिक अभ्यास कराया जाए। 
  •  इससे बालक ओं का मस्तिष्क ज्ञान के प्रति  सचेत बना रहता है। तथा पाठ्य सामग्री को दोहराने का भी अवसर मिलता है। 
 2. प्रभाव का नियम 

इस नियम को संतोष संतोष का नियम भी कहते हैं। जिन कार्यों को करने से व्यक्ति को संतोष मिलता है।  उसे वह बार-बार करता है। जिन कार्यों से असंतोष मिलता है, उन्हें वह नहीं करना चाहता है।उन्हें वह नहीं करना चाहता है। 

संतोषप्रद परिणाम व्यक्ति के लिए शक्ति वर्धक होते हैं।  तथा कष्टदायक असंतोषप्रद परिणाम अनुक्रिया के बंधन को कमजोर बना देते हैं। 

 हिलगार्ड तथा बॉअर ने इस सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहा – “प्रभाव के नियम में किसी उद्दीपक व अनुक्रिया का संबंध उसके प्रभाव के आधार पर मजबूत या कमजोर होता है।  यह संबंध ऐसा होता है कि उससे जब व्यक्ति में संतोषजनक प्रभाव होता है, तो इसमें संबंध की शक्ति बढ़ जाती है। और जब संबंध ऐसा होता है, कि उससे व्यक्ति में असंतोष जनक प्रभाव होता है, तो उसकी शक्ति स्वत: ही कम होती जाती है।”

प्रभाव के नियम का शैक्षणिक महत्व
  • छात्रों को सीखने के लिए प्रोत्साहित तथा अभिप्रेरित किया जाना चाहिए।
  •  क्रिया  की समाप्ति पर पुरस्कार तथा दंड की व्यवस्था की जाए इससे अधिगम प्रभाव स्थाई हो जाते हैं।  
  •  विद्यालय में छात्रों को व्यक्तिगत तथा उनके मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए अधिगम कार्य को कराएंगे। 
  •  शिक्षण कार्य करते समय अध्यापक को ऐसी विधियों को अपनाना चाहिए जिससे छात्रों को संतोषप्रद अनुभव हो।  छात्रों को ज्यादा भला बुरा नहीं कहना चाहिए। 
  •  शिक्षक को कक्षा शिक्षण में नवीन क्रियाओं को सिखाते समय शिक्षण विधियों  में विविधता लानी चाहिए। उनके द्वारा उपयोग में लाई गई शिक्षण विधियां भी नवीन तथा रोचक होनी चाहिए। 
  •  इससे छात्रों को नवीन विषय वस्तु सीखने में सफलता मिलती है क्योंकि अधिगम क्रियाएं छात्रों के मानसिक स्तर में रुचि तथा क्षमता के अनुकूल होती हैं। 
3. तत्परता का नियम

इस नियम का तात्पर्य यह है कि जब प्राणी किसी कार्य को करने के लिए तैयार होता है, तो वह प्रक्रिया है:-  यदि वह कार्य करता है, जो उसे आनंद देता है तथा कार्य नहीं करता है। तो कष्ट व तनाव उत्पन्न करती है। जब वह सीखने को तैयार नहीं होता है अथवा उसे अधिगम हेतु बाहय किया जाता है तो वह झुझुलाहट अनुभव करता है।  रुचिकर कार्य करने में प्राणी को आनंद की अनुभूति होती है। और अरुचि कर कार्य सीखने में असंतोष का अनुभव करता है। 

 थार्नडाइक के द्वारा इस नियम के अंतर्गत निम्न बातों की व्याख्या की गई है जो इस प्रकार है। 
  • व्यवहार करने वाली संवाहक इकाई तत्पर होती है, तो व्यवहार करने से संतोष की अनुभूति होती है। 
  • इस नियम के अंतर्गत व्यवहार करने वाली इकाई जब कार्य करने को तत्पर नहीं होती है, तो उस समय कार्य करना मानसिक तनाव उत्पन्न करता है।
  •  व्यवहार करने वाली इकाई को जब बल पूर्वक कार्य करवाने का प्रयास किया जाता है, तो उसे असंतोष कष्ट एवं तनाव की अनुभूति होती है। 
 तत्परता का नियम और कक्षा शिक्षण

1. नवीन ज्ञान देने से पूर्व छात्रों को मानसिक रूप से नए ज्ञान को ग्रहण करने के लिए तैयार करना चाहिए। 

2.  इसमें छात्रों की  वैयक्तिक भिन्नता को भी ध्यान में रखना चाहिए। 

3.  अध्यापक को छात्रों को अधिगम के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए।  क्योंकि ऐसा करने से छात्रों का भावनात्मक दमन होगा और उनकी ऊर्जा का दुरुपयोग होगा। 

4.  छात्रों में मानसिक तत्परता के लिए अध्यापक को नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिए।  जिससे कि छात्रों में अधिगम के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हो सके। 



सीखने के  गौण नियम इस प्रकार है। 

 बहु अनुक्रिया का नियम

 जब व्यक्ति के सामने कोई भी समस्या आती है तो वह उसे सुलझाने के लिए अनेक प्रकार की अनुक्रियाएं करता है।  और अनुक्रियाओ के करने का क्रम तब तक चलता रहता है। जब तक वह सही अनुक्रिया के रूप में समस्या का समाधान नहीं कर लेता है।  इस प्रकार अपनी समस्या को सुलझाने पर व्यक्ति संतोष का अनुभव करता है। 

मानसिक स्थिति का नियम

किसी भी प्राणी के सीखने की योग्यता उसकी अभिवृत्ति तथा मनोवृति द्वारा निर्देशित होती है। यदि व्यक्ति की किसी कार्य को सीखने में रुचि व तत्परता है, तो वह उसे शीघ्र ही सीख लेता है।  किंतु यदि प्राणी मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर नहीं है तो वह उस क्रिया को या तो सीख ही नहीं पाएगा अथवा फिर उसी कठिनाई से जूझना पड़ेगा। 

 आंशिक क्रिया का नियम

यह नियम इस बात पर बल देता है कि कोई क्रिया संपूर्ण स्थिति के प्रति नहीं होती है।  यह केवल संपूर्ण स्थिति के कुछ पक्षियों तथा अंशों के प्रति ही होती है। अर्थात यह नियम बताता है कि कार्य को अंशिता विभाजित  करके करने से वह कार्य जल्दी सीख लिया जाता है। 

 सादृश्य अनुक्रिया का नियम

इस नियम का आधार पूर्ण अनुभव है।  प्राणी किसी नवीन परिस्थिति या समस्या की उपस्थित होने पर उससे मिलती-जुलती अन्य परिस्थिति क्या समस्या का अनुसरण करता है।  जिसे वह पहले ही अनुभव कर चुका हो। वह उसके प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया करेगा जैसा उसने पहली परिस्थिति या समस्या के साथ की थी।  समान तत्वों के आधार पर नवीन ज्ञान का पुराने अनुभवों से समानता करने पर सीखने में सरलता तथा शीघ्रता होती है। 

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