शिक्षण के सूत्र
“शिक्षण सूत्र शिक्षण प्रक्रिया में विशेष विधियों का ज्ञान कराते हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर शिक्षण करके शिक्षक अपने छात्रों की उपलब्धि में गुणात्मक सुधार कर सकते हैं।”
कामेनियत्त एवं हरबर्ट स्पेंसर आदि ने अपने अनुभवों के आधार पर शिक्षण के कुछ सामान्य नियम निर्धारित किए थे, जिन्हें बाद में शिक्षण सूत्रों के नाम से जाना जाने लगा।
शिक्षण सूत्र की परिभाषा
शिक्षकों द्वारा अध्ययन अध्यापन को प्रभावशाली बनाने के लिए एवं छात्रों को अध्ययन के प्रति जागरूक तथा क्रियाशील बनाने हेतु जो तकनीके एवं विधियां प्रयोग में लाई जाती है, वह शिक्षण सूत्र कहलाती हैं।
Maxims of Teaching with Examples
(1) सरल से जटिल की ओर
- इस सूत्र का आशय यह है कि छात्रों को पहले सरल व फिर जटिल बातों की जानकारी दी जाये जिससे पाठ व विषय में उनकी रुचि व ध्यान लगा रहे।
- यह क्रम बाल विकास के अनुकूल व मनोवैज्ञानिक है क्योंकि बच्चा आयु बढ़ने व मानसिक विकास के साथ जटिल बातों को भी समझने लगता है।
- यदि अध्यापक प्रारम्भ में ही कठिन बातों/तथ्यों को छात्रों को बताने लगें तो वे उसे समझने में असमर्थ रहेंगे। इससे शिक्षक का प्रयास व्यर्थ हो जायेगा।
- उदाहरणार्थ- हासिल के जोड़ व घटाना सिखाने से पहले बच्चों को गिनती व साधारण जोड़, घटाना सिखाना चाहिए।
- हमारे देश का इतिहास छोटी-छोटी कहानियों के रूप में बच्चों को सरल प्रतीत होगा परन्तु युद्धों, घटनाओं, सन्धियों व शासन प्रबन्ध के विस्तृत रूप में यह अत्यन्त कठिन लगेगा।
(2) ज्ञात से अज्ञात की ओर
- इस सूत्र के अनुसार शिक्षक को बालकों के पूर्व ज्ञान को जाँचकर उसी के आधार पर उन्हें नया ज्ञान देना चाहिए अर्थात् उसे पहले वे बातें बतानी चाहिए जिन्हें वह जानता है फिर उस विषयवस्तु पर आना चाहिए जिन्हें वह नहीं जानता क्योंकि सर्वथा नवीन तथ्य बच्चे के लिए कठिन होते हैं।
- किसी पाठ में छात्रों की रुचि व ध्यान तभी संभव है जब उसमें जानकारी व नयापन दोनों सम्मिलित हों। अतः शिक्षक को पढ़ाने से पूर्व छात्रों का पूर्वज्ञान अवश्य जान लेना चाहिए।
- उदाहरणार्थ- भाषा शिक्षण में वर्णमाला की जानकारी कराते समय प्रत्येक वर्ण से सम्बन्धित वस्तु की जानकारी करायें तत्पश्चात् उसी वर्ण से सम्बन्धित एक से अधिक वस्तुओं की जानकारी कराई जा सकती है। जैसे- क से कमल, कलम, कलश, कबूतर तथा ख से खरगोश, खत, खड़ाऊं आदि
ये भी पढे: शिक्षण का अर्थ एवं उद्देश्य
(3) स्थूल से सूक्ष्म की ओर
- बच्चों के शारीरिक विकास के साथ-साथ उनका मानसिक विकास भी होता है।
- शैशवावस्था में वह सूक्ष्म/अमूर्त वस्तुओं के बारे में नहीं जानता परन्तु स्थूल/मूर्त पदार्थों को सरलता से जान लेता है।
- आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें सूक्ष्म भावों/तथ्यों/वस्तुओं को समझने की क्षमता का विकास होता जाता है। अतः शिक्षकों को छोटे बच्चों को पढ़ाते समय प्रारम्भ में केवल मूर्त वस्तुओं का ही प्रयोग करना चाहिए और उनकी सहायता से सूक्ष्म बातों को बताना चाहिए।
- उदाहरणार्थ- गणित में जोड़, घटाना सिखाने के लिए गेंद, गोली, कंकड़ आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
- भूगोल में नदी, पर्वत, समुद्र, झीलों, तालाबों, कुओं आदि का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रदर्शन (भ्रमण) या फिर मॉडल, चित्र, चार्ट आदि के माध्यम से सरलतापूर्वक कराया जा सकता है।
(4) पूर्ण से अंश की ओर
- इस सूत्र का आधार गेस्टॉल्टवाद (अवयवीवाद) है। गेस्टॉल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम किसी वस्तु को उसके पूर्ण रूप में ही देखते हैं।
- बालक के सामने कोई वस्तु आने पर वह सर्वप्रथम पूर्ण वस्तु को ही देखता, जानता व समझता है उसके विभिन्न अंगों/अंशों को नहीं। जैसे- बालक सर्वप्रथम किसी वृक्ष को उसके पूर्ण रूप में ही देखता है उसके भागों के बारे में अलग-अलग नहीं।
- शिक्षक को उसके इस पूर्व ज्ञान से लाभ उठाकर उसे वृक्ष के अंगों जड़, तना, डाली, पत्ती, फल, फूल आदि के बारे में जानकारी देना चाहिए।
- उदाहरणार्थ- कम्प्यूटर का ज्ञान कराने के लिए पहले कम्प्यूटर व फिर उसके भागों जैसे- मॉनीटर, की बोर्ड, सी0पी0यू0, माउस, प्रिन्टर का ज्ञान कराया जाये। भूगोल में पहले भारत का मानचित्र दिखाकर फिर राज्यों का ज्ञान कराया जाये।
(5) अनिश्चित से निश्चित की ओर
- बालकों के बौद्धिक विकास का क्रम अनिश्चित से निश्चित की ओर होता है। मानसिक विकास (ज्ञानेन्द्रियों के विकास) व अनुभव के साथ-साथ उसके विचारों में स्पष्टता व निश्चित आती है।
- प्रारम्भ में बच्चों को किसी घटना, तथ्य, वस्तु का स्पष्ट व निश्चित ज्ञान नहीं होता है। अनुभव, परिपक्वता के अभाव व कल्पना की अधिकता के कारण वह उनके बारे में अपने मन में कुछ विचार बना लेते हैं जो अस्पष्ट, अनिश्चित व कई बार गलत भी होते हैं। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह उनके अनिश्चित ज्ञान को स्पष्ट व निश्चित करे तथा गलत धारणाओं/जानकारियों में भी सुधार करें।
- उदाहरणार्थ- किसी देश/प्रदेश, प्रमुख स्थल व वहां की विशिष्टताओं से सम्बन्धित छात्रों के अस्पष्ट व अनिश्चित ज्ञान को शिक्षक वहाँ के मानचित्र, चित्र, मॉडल, चार्ट व उदाहरणों के माध्यम से निश्चित व स्पष्ट कर सकता है।
(6) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर
- इस सूत्र के अनुसार छात्रों को सबसे पहले उनके द्वारा देखी गई वस्तुओं के बारे बताना चाहिए तत्पश्चात् उन वस्तुओं के बारे में, जिन्हें वह नहीं देख सकता है।
- अर्थात् उन्हें पहले उनके वर्तमान की जानकारी कराई जाये फिर उसी की सहायता से भूत या भविष्य की, क्योंकि जो वस्तुएं हमारे सामने होती हैं उनका ज्ञान हम आसानी से प्राप्त कर लेते हैं।
- अतः शिक्षण के समय शिक्षकों को छात्रों को अप्रत्यक्ष वस्तुओं/तथ्यों/घटनाओं की जानकारी देने के लिए पहले प्रत्यक्ष वस्तुओं, घटनाओं के उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।
- उदाहरणार्थ- भाषा में चित्र पठन व अन्य विषयों में सहायक सामग्री (चार्ट, चित्र, मॉडल, मूर्त वस्तुओं) के माध्यम से बच्चों को अप्रत्यक्ष वस्तुओं के बारे में सरलता से जानकारी दी जा सकती है। सामाजिक विषय में ग्लोब, मॉडल, चित्र आदि के माध्यम से संसार के विविध भागों के बारे में बताया जा सकता है।
(7) विशिष्ट से सामान्य की ओर
- इस सूत्र के अनुसार अध्यापक को छात्रों के सामने पहले किसी प्रकरण से सम्बन्धित कई उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए फिर उन्हीं की सहायता से सिद्धान्त व नियम स्पष्ट करना चाहिए। स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करके उन्हें निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
- यह सूत्र बालकों को निरीक्षण, परीक्षण, विचार, चिन्तन आदि के अवसर प्रदान करता हैं। अतः इसमें बच्चे रुचिपूर्वक सीखते हैं जिससे प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है। विज्ञान, गणित तथा व्याकरण शिक्षण में यह सूत्र विशेष उपयोगी है।
- उदाहरणार्थ- संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण पढ़ाते समय पहले इनके एक से अधिक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए फिर उन्हीं उदाहरणों को समेकित करते हुए इनकी परिभाषा को स्पष्ट करना चाहिए। संस्कृत/हिन्दी में सूक्ति एक विशिष्ट विचार से सम्बन्धित होती है परतु उसकी व्याख्या सामान्य सन्दर्भों में की जाती है।
(8) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर
- विश्लेषण बालक को किसी बात को भली प्रकार समझने में सहायक होता है तो संश्लेषण उस बात के ज्ञान को निश्चित रूप प्रदान करता है।
- इस सूत्र के अनुसार किसी घटना या तथ्य की जानकारी पहले समग्र रूप में कराकर फिर उसके विविध भागों को व्याख्या व विश्लेषण द्वारा स्पष्ट किया जाना चाहिए तत्पश्चात उन भागों या खण्डों को आपस में जोड़कर पूरी जानकारी कराकर निष्कर्ष तक पहुंचना चाहिए। शिक्षण में विश्लेषण व संश्लेषण दोनों आवश्यक हैं।
- उदाहरणार्थ- छात्रों को यदि उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों की जानकारी देना है तो सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश फिर उसके सभी जिलों की स्थिति व विशेषताओं की जानकारी करायी जा सकती है और अन्त में सभी को पुनः समेकित करते हुए उत्तर प्रदेश की जानकारी की जा सकती है।
(9) मनोवैज्ञानिक क्रम से तर्कसंगत की ओर
- शिक्षा में बाल मनोविज्ञान के महत्व के कारण यह माना जाता है कि बालक की शिक्षा उसकी रुचियों, रूझानों, क्षमताओं व जिज्ञासाओं के अनुसार प्रदान करनी चाहिए और जैसे-जैसे उसके ज्ञान का विकास होता जाये, उसे विषय का तार्किक व क्रमबद्ध ज्ञान प्रदान किया जाये। जिससे उनकी रुचि व ध्यान पाठ व विषय में बना रहे।
- उदाहरणार्थ- भाषा में शिक्षण का तार्किक क्रम वर्ण एवं ध्वनि के पश्चात् वाक्य सिखाने का है जबकि मनोवैज्ञानिक क्रम के अनुसार पहले वाक्य फिर वर्ण व ध्वनि के बारे में जानकारी करानी चाहिए।
- बच्चों को इतिहास में मुगलकालीन स्थापत्य की जानकारी देना है तो मनोवैज्ञानिक विधि के अनुसार बच्चों को पहले स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों के चित्रों को दिखाकर चर्चा करें जिससे वे पाठ में रुचि लें फिर तार्किक ढंग से उनकी स्थापत्य सम्बन्धी विशेषताओं को बताएं।
(10) अनुभव से युक्तियुक्त की ओर
- अनुभूत ज्ञान वह होता है जिसे बालक अपने निरीक्षण व अनुभव द्वारा प्राप्त करता है। उसके इस अपूर्ण व अनिश्चित ज्ञान को वास्तविक व स्थायी बनाने के लिए उसे तर्कयुक्त बनाना चाहिए। अल्पायु के बालकों में तर्क व विचार के प्रयोग की क्षमता बड़ों की अपेक्षा कम होती है। उनकी जानकारियों का आधार उनका अपना अवलोकन व स्वानुभव होता है परन्तु इन अनुभवों के कारणों को खोजने में बाल मस्तिष्क असफल रहता है। अतः शिक्षक को बच्चों के अनुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान को विविध विधियों/सामग्रियों के प्रयोग द्वारा तर्क संगत व युक्तियुक्त बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
- उदाहरणार्थ- सूर्योदय व सूर्यास्त को वह प्रतिदिन देखता है, गर्मी के बाद बरसात फिर जाड़ा आता है, सर्दियों में कोहरा भी वह देखता है, बरसात में जोरदार बारिश वह प्रतिवर्ष देखता है परन्तु ऐसा क्यों होता है और इसके क्या कारण हैं ? इसे वह नहीं समझ पाता। अतः शिक्षक को कारण सहित व उदाहरण, टी0एल0एम0 के माध्यम से उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करना चाहिए जिससे उसका अनुभवजन्य ज्ञान युक्तियुक्त बन सके।
(11) प्रकृति का अनुसरण
- इस सूत्र का आशय है कि बालक की शिक्षा दीक्षा उसकी प्रकृति के अनुसार होनी चाहिए। शिक्षक को उन्हें सिखाते समय उनकी आयु, मानसिक स्तर, क्षमताओं, रुचियों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। पाठ्यक्रम, पाठ्यवस्तु, पाठ्यपुस्तक, शिक्षण विधि, शिक्षण अधिगम सामग्री व गतिविधियाँ सभी कुछ बच्चों के शारीरिक व मानसिक विकास व आवश्यकताओं के अनुरूप होने चाहिए। यदि हमारी शिक्षा व शिक्षण बाल विकास में बाधक बनते हैं तो वह अनुचित, अप्रासंगिक व अमनोवैज्ञानिक हैं। अतः शिक्षक के रूप में हमें इस सूत्र का अनुसरण करके छात्रों के स्वाभाविक विकास में सहायता करने को तत्पर रहना चाहिए।
1. | बाल विकास एवं शिक्षा मनोविज्ञान के महत्वपूर्ण सिद्धांत | Click Here |
2. | शिक्षण विधियाँ एवं उनके प्रतिपादक/मनोविज्ञान की विधियां,सिद्धांत | Click Here |
3. | मनोविज्ञान की प्रमुख शाखाएं एवं संप्रदाय | Click Here |
4. | बुद्धि के सिद्धांत | Click Here |
5. | Child Development: Important Definitions | Click Here |
6. | समावेशी शिक्षा Notes | Click Here |
7. | अधिगम की परिभाषाएं एवं सिद्धांत | Click Here |
8. | बाल विकास एवं शिक्षाशास्त्र | Click Here |
9. | शिक्षण कौशल के नोट्स | Click Here |
10. | मूल्यांकन एवं मापन प्रश्न और परिभाषाएं | Click Here |
11. | आकलन तथा मूल्यांकन नोट्स | Click Here |
12. | संप्रेषण की परिभाषाएं | Click Here |
Download CTET Score Booster E-Books |
Science Pedagogy Notes | Click Here |
Hindi Pedagogy Notes | Click Here |
EVS Pedagogy Notes | Click Here |
Maths Pedagogy Notes | Click Here |
[To Get latest Study Notes Join Us on Telegram- Link Given Below]
For Latest Update Please join Our Social media Handle
Follow Facebook – Click Here |
Join us on Telegram – Click Here |
Follow us on Twitter – Click Here |